मजदूरों के हक में मनरेगा,
Amar Ujala,
4 February, 2016.
रीतिका खेड़ा
Updated 20:11 बुधवार, 3 फरवरी 2016
+बाद में पढ़ें
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के दस साल पूरे हो गए हैं। यह वही मनरेगा है, जिसे पिछले वर्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यूपीए सरकार की विफलता का जीता-जागता स्मारक बताया था, तो राजस्थान की मुख्यमंत्री ने इसकी जरूरत पर ही सवाल उठा दिया था। यही नहीं, ग्रामीण विकास मंत्री ने तो कहा कि इसे 600 में से मात्र 200 जिलों में चलाया जाएगा। जबकि राजनीतिक पंडितों ने इसी मनरेगा को मनमोहन सिंह सरकार को दूसरी बार सत्ता में आने का एक प्रमुख कारण बताया था। मनरेगा को लेकर मौजूदा राजग सरकार का रवैया दोहरे चरित्र को उजागर करता है।
लेकिन सारी गलती मौजूदा सरकार की ही नहीं है, यूपीए-दो भी इसके लिए काफी हद तक जिम्मेदार है। मनरेगा के मूल उद्देश्यों (काम मांगने पर मजदूरी, समय पर भुगतान, आदि) को मजबूत करने के बजाय इस पर कन्वर्जेंस, स्वच्छता, स्वयं सहायता समूह जैसे कई तरह के लक्ष्यों को थोप दिया गया।
इलेक्ट्रॉनिक मस्टर रोल्स (ईएमआर-उपस्थिति पंजिका) को लाया गया, ताकि मजदूरों के पास काम मांगने की रसीद रहे और काम न मिलने की स्थिति में वे बेरोजगारी भत्ते की मांग कर सकें। ऐसा भी माना गया कि ईएमआर से भ्रष्टाचार रुकेगा, लेकिन इससे इन दोनों में से किसी भी समस्या का हल नहीं निकला। कुछ जगहों को छोड़कर, ईएमआर से नुकसान ही हुआ है। कार्यस्थल पर काम पाने का हक चला गया, कागजी काम बढ़ गया और कहीं-कहीं बिचौलियों की वापसी हुई।
साथ ही इसमें केंद्रीकरण की प्रवृत्ति भी विकसित हुई। हर राज्य के पास पैसा होने के बजाय पूरा बजट केंद्र के इलेक्ट्रॉनिक फंड मैनेजमेंट सिस्टम (ईएफएमएस) से भेजा जाता है। प. बंगाल में एक बीडीओ ने बताया कि एक भुगतान में उन्हें आठ घंटे लगे। कहीं भी सिस्टम क्रैश कर सकता है। ईएफएमएस संबंधी मुद्दे अभी निपटे नहीं हैं, लेकिन केंद्र ने पब्लिक फंड मैनेजमेंट सिस्टम (पीएफएमएस) शुरू कर दिया है।
सुप्रीम कोर्ट ने कई बार आदेश दिया है कि आधार अनिवार्य नहीं है, बावजूद इसके ग्रामीण विकास मंत्रालय बार-बार इसे दरकिनार करने की कोशिश में है। आधार और बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण का मनरेगा में खास लाभ नहीं होने पर भी राज्यों पर दबाव है कि डाटाबेस में मजदूरों के आधार नंबर डाले जाएं। कर्नाटक के चित्रदुर्ग जिले में 2014-15 में 10-15 करोड़ रुपये का भुगतान इसलिए रुक गया, क्योंकि मजदूरों द्वारा काम करने के बाद डाटा इंट्री ऑपरेटर ने उनका नाम डाटाबेस से हटा दिया। पूछताछ से पता चला कि उन मजदूरों के आधार नंबर नहीं थे और प्रशासन की ओर से दबाव है कि सौ फीसदी मजदूरों के आधार नंबर डाले जाएं। इसलिए ऑपरेटर ने बिना आधार नंबर वाले मजदूरों के नाम हटा दिए।
संसाधन का निर्माण मनरेगा का अहम उद्देश्य है। बेशक शुरुआती वर्षों में इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। फिर भी, मनरेगा के तहत कुछ संसाधन जरूर विकसित किए गए हैं। मसलन, सड़कों के किनारे पानी निकासी की नालियां, तालाब की खुदाई और उसे गहरा करना, आदि। पश्चिम बंगाल के नदिया जिले में लोगों के खेत के बीचोबीच मनरेगा द्वारा नाली खोदी गई, जिससे अब वही खेत पानी में डूबते नहीं। वहां सब्जियों की खेती होती है। बूंदी (राजस्थान) में नहरें तो थीं, लेकिन उनकी कभी सफाई नहीं हुई, जिससे पानी का बहाव रुक जाता। उस क्षेत्र के गांवों के बीच हर साल पानी को लेकर लड़ाई होती, जिला प्रशासन को पुलिस भेजना पड़ता। मनरेगा से इनकी सफाई की गई, कृषि उत्पादन बढ़ा, झगड़े कम हुए, प्रशासन को भी राहत मिली।
शहरी लोग चार लेन वाली सड़कों के आदी हैं, सो कच्ची सड़कों का महत्व नहीं समझ सकते। लेकिन गांव के लोग, जो फुटपाथ के लिए तरस गए, मनरेगा से बनी ऐसी सड़कों को तवज्जो देते हैं। जहां मृतकों का अंतिम संस्कार मुश्किल था, अब वहां बीमार व्यक्ति को साइकिल या मोटरसाइकिल पर बिठाकर अस्पताल ले जाया जा सकता है। सार्वजनिक रास्ता बन जाने से दलित समुदाय को भी राहत मिली है, क्योंकि सड़क का अधिकार भी झगड़े का मुद्दा बनता है। सुंदरबन में मिट्टी-कार्य से लोगों की जान बचाने का काम हुआ है-तटबंध के कार्यों से बाढ़ और ज्वार का पानी बस्तियों में नहीं आता। साथ ही, लंबे समय के लिए मनरेगा द्वारा मैनग्रोव रोपने का कार्य भी किया गया है। इससे जानें भी बचेंगी और पर्यावरण भी। मनरेगा में 40 फीसदी तक सामग्री पर खर्च का प्रावधान है। मछली पालने के लिए तालाब निर्माण ऐसे कार्य हैं, जिनमें सामग्री पर भी खर्च हुआ है। जो मछली-तालाब हमने देखे, उनमें अंडे, मछलियों का भोजन, पानी-बिजली पर खर्च घटाकर हमने पाया कि 1.08 से 3.2 लाख रुपये तक का मुनाफा होता है।
मनरेगा के जरिये वृक्षारोपण के कार्य भी खूब हुए हैं। सड़कों के किनारे, जंगल और पंचायत की जमीन पर, सरकारी परिसरों में और निजी जमीन पर फलदार पेड़ लगाए गए हैं। बेशक मनरेगा के बहुत से काम विफल भी हुए हैं, लेकिन इन उदाहरणों से पता चलता है कि तकनीकी समर्थन हो, तो सामग्री के बिना भी इससे अच्छे संसाधन विकसित किए जा सकते हैं। पर तकनीकी समर्थन के साथ राजनीतिक समर्थन भी जरूरी है। इस दृष्टि से तमिलनाडु उम्मीद की राह दिखाता है। वहां तकनीकी का सही उपयोग किया गया है। साथ ही मनरेगा क्रियान्वयन में मजदूरों को प्राथमिकता दी गई है। वर्ष 2014-15 में हर जॉबकार्ड धारक परिवार को 32 दिन काम मिला। महिलाओं को 85 फीसदी रोजगार मिला। राजस्थान और आंध्र प्रदेश में जॉबकार्ड धारक परिवार को औसतन 17 दिन काम मिला और वहां महिलाओं की भागीदारी क्रमशः 68 और 59 फीसदी रही। यही नहीं, तमिलनाडु में कुछ रचनात्मक काम भी हुए हैं, जैसे दो हजार ग्राम पंचायतों में मनरेगा के जरिये ठोस कचरे का निष्पादन किया जाता है। तमिलनाडु में ईएमआर का उपयोग बिल्कुल नहीं किया जाता और वहां आम तौर पर भुगतान सात दिनों में होता है।
-लेखिका किंग्स कॉलेज लंदन में आईसीसीआर विजिटिंग प्रोफेसर हैं और आईआईटी, दिल्ली में पढ़ाती हैं
Amar Ujala,
4 February, 2016.
मजदूरों के हक में मनरेगा
Updated 20:11 बुधवार, 3 फरवरी 2016
+बाद में पढ़ें
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के दस साल पूरे हो गए हैं। यह वही मनरेगा है, जिसे पिछले वर्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यूपीए सरकार की विफलता का जीता-जागता स्मारक बताया था, तो राजस्थान की मुख्यमंत्री ने इसकी जरूरत पर ही सवाल उठा दिया था। यही नहीं, ग्रामीण विकास मंत्री ने तो कहा कि इसे 600 में से मात्र 200 जिलों में चलाया जाएगा। जबकि राजनीतिक पंडितों ने इसी मनरेगा को मनमोहन सिंह सरकार को दूसरी बार सत्ता में आने का एक प्रमुख कारण बताया था। मनरेगा को लेकर मौजूदा राजग सरकार का रवैया दोहरे चरित्र को उजागर करता है।
लेकिन सारी गलती मौजूदा सरकार की ही नहीं है, यूपीए-दो भी इसके लिए काफी हद तक जिम्मेदार है। मनरेगा के मूल उद्देश्यों (काम मांगने पर मजदूरी, समय पर भुगतान, आदि) को मजबूत करने के बजाय इस पर कन्वर्जेंस, स्वच्छता, स्वयं सहायता समूह जैसे कई तरह के लक्ष्यों को थोप दिया गया।
इलेक्ट्रॉनिक मस्टर रोल्स (ईएमआर-उपस्थिति पंजिका) को लाया गया, ताकि मजदूरों के पास काम मांगने की रसीद रहे और काम न मिलने की स्थिति में वे बेरोजगारी भत्ते की मांग कर सकें। ऐसा भी माना गया कि ईएमआर से भ्रष्टाचार रुकेगा, लेकिन इससे इन दोनों में से किसी भी समस्या का हल नहीं निकला। कुछ जगहों को छोड़कर, ईएमआर से नुकसान ही हुआ है। कार्यस्थल पर काम पाने का हक चला गया, कागजी काम बढ़ गया और कहीं-कहीं बिचौलियों की वापसी हुई।
साथ ही इसमें केंद्रीकरण की प्रवृत्ति भी विकसित हुई। हर राज्य के पास पैसा होने के बजाय पूरा बजट केंद्र के इलेक्ट्रॉनिक फंड मैनेजमेंट सिस्टम (ईएफएमएस) से भेजा जाता है। प. बंगाल में एक बीडीओ ने बताया कि एक भुगतान में उन्हें आठ घंटे लगे। कहीं भी सिस्टम क्रैश कर सकता है। ईएफएमएस संबंधी मुद्दे अभी निपटे नहीं हैं, लेकिन केंद्र ने पब्लिक फंड मैनेजमेंट सिस्टम (पीएफएमएस) शुरू कर दिया है।
सुप्रीम कोर्ट ने कई बार आदेश दिया है कि आधार अनिवार्य नहीं है, बावजूद इसके ग्रामीण विकास मंत्रालय बार-बार इसे दरकिनार करने की कोशिश में है। आधार और बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण का मनरेगा में खास लाभ नहीं होने पर भी राज्यों पर दबाव है कि डाटाबेस में मजदूरों के आधार नंबर डाले जाएं। कर्नाटक के चित्रदुर्ग जिले में 2014-15 में 10-15 करोड़ रुपये का भुगतान इसलिए रुक गया, क्योंकि मजदूरों द्वारा काम करने के बाद डाटा इंट्री ऑपरेटर ने उनका नाम डाटाबेस से हटा दिया। पूछताछ से पता चला कि उन मजदूरों के आधार नंबर नहीं थे और प्रशासन की ओर से दबाव है कि सौ फीसदी मजदूरों के आधार नंबर डाले जाएं। इसलिए ऑपरेटर ने बिना आधार नंबर वाले मजदूरों के नाम हटा दिए।
संसाधन का निर्माण मनरेगा का अहम उद्देश्य है। बेशक शुरुआती वर्षों में इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। फिर भी, मनरेगा के तहत कुछ संसाधन जरूर विकसित किए गए हैं। मसलन, सड़कों के किनारे पानी निकासी की नालियां, तालाब की खुदाई और उसे गहरा करना, आदि। पश्चिम बंगाल के नदिया जिले में लोगों के खेत के बीचोबीच मनरेगा द्वारा नाली खोदी गई, जिससे अब वही खेत पानी में डूबते नहीं। वहां सब्जियों की खेती होती है। बूंदी (राजस्थान) में नहरें तो थीं, लेकिन उनकी कभी सफाई नहीं हुई, जिससे पानी का बहाव रुक जाता। उस क्षेत्र के गांवों के बीच हर साल पानी को लेकर लड़ाई होती, जिला प्रशासन को पुलिस भेजना पड़ता। मनरेगा से इनकी सफाई की गई, कृषि उत्पादन बढ़ा, झगड़े कम हुए, प्रशासन को भी राहत मिली।
शहरी लोग चार लेन वाली सड़कों के आदी हैं, सो कच्ची सड़कों का महत्व नहीं समझ सकते। लेकिन गांव के लोग, जो फुटपाथ के लिए तरस गए, मनरेगा से बनी ऐसी सड़कों को तवज्जो देते हैं। जहां मृतकों का अंतिम संस्कार मुश्किल था, अब वहां बीमार व्यक्ति को साइकिल या मोटरसाइकिल पर बिठाकर अस्पताल ले जाया जा सकता है। सार्वजनिक रास्ता बन जाने से दलित समुदाय को भी राहत मिली है, क्योंकि सड़क का अधिकार भी झगड़े का मुद्दा बनता है। सुंदरबन में मिट्टी-कार्य से लोगों की जान बचाने का काम हुआ है-तटबंध के कार्यों से बाढ़ और ज्वार का पानी बस्तियों में नहीं आता। साथ ही, लंबे समय के लिए मनरेगा द्वारा मैनग्रोव रोपने का कार्य भी किया गया है। इससे जानें भी बचेंगी और पर्यावरण भी। मनरेगा में 40 फीसदी तक सामग्री पर खर्च का प्रावधान है। मछली पालने के लिए तालाब निर्माण ऐसे कार्य हैं, जिनमें सामग्री पर भी खर्च हुआ है। जो मछली-तालाब हमने देखे, उनमें अंडे, मछलियों का भोजन, पानी-बिजली पर खर्च घटाकर हमने पाया कि 1.08 से 3.2 लाख रुपये तक का मुनाफा होता है।
मनरेगा के जरिये वृक्षारोपण के कार्य भी खूब हुए हैं। सड़कों के किनारे, जंगल और पंचायत की जमीन पर, सरकारी परिसरों में और निजी जमीन पर फलदार पेड़ लगाए गए हैं। बेशक मनरेगा के बहुत से काम विफल भी हुए हैं, लेकिन इन उदाहरणों से पता चलता है कि तकनीकी समर्थन हो, तो सामग्री के बिना भी इससे अच्छे संसाधन विकसित किए जा सकते हैं। पर तकनीकी समर्थन के साथ राजनीतिक समर्थन भी जरूरी है। इस दृष्टि से तमिलनाडु उम्मीद की राह दिखाता है। वहां तकनीकी का सही उपयोग किया गया है। साथ ही मनरेगा क्रियान्वयन में मजदूरों को प्राथमिकता दी गई है। वर्ष 2014-15 में हर जॉबकार्ड धारक परिवार को 32 दिन काम मिला। महिलाओं को 85 फीसदी रोजगार मिला। राजस्थान और आंध्र प्रदेश में जॉबकार्ड धारक परिवार को औसतन 17 दिन काम मिला और वहां महिलाओं की भागीदारी क्रमशः 68 और 59 फीसदी रही। यही नहीं, तमिलनाडु में कुछ रचनात्मक काम भी हुए हैं, जैसे दो हजार ग्राम पंचायतों में मनरेगा के जरिये ठोस कचरे का निष्पादन किया जाता है। तमिलनाडु में ईएमआर का उपयोग बिल्कुल नहीं किया जाता और वहां आम तौर पर भुगतान सात दिनों में होता है।
-लेखिका किंग्स कॉलेज लंदन में आईसीसीआर विजिटिंग प्रोफेसर हैं और आईआईटी, दिल्ली में पढ़ाती हैं