Tuesday, March 29, 2016

72. मेरे गुजरात की कहानी, Amar Ujala | Growing up in Gujarat, NDTV, 8 April, 2014

मेरे गुजरात की कहानी
Amar Ujala 

Growing up in Gujarat, NDTV
8 April, 2014


मेरे गुजरात की कहानी

story of my gujarat
जब मैं 16 वर्ष की थी, तब मेरी ही उम्र का एक लड़का पटना से मेरे गृहनगर बड़ोदा (गुजरात) आया। शहर को देखकर वह चकाचौंध था। बिजली की निर्बाध आपूर्ति, सड़क की बेहतरीन दशा, रात में भी बिना किसी डर के अकेली दोपहिया वाहन चलाती महिलाएं। गरबा के दौरान, रात भर, आकर्षक बैकलेस चोली में महिलाएं घूम रही थीं। उसे अपनी आंखों पर सहसा विश्वास नहीं हो रहा था। मैंने उसका राज्य (बिहार) नहीं देखा था, इसलिए उसके उत्साह की वजह मेरी समझ में नहीं आ रही।

ऐसे ही, एक बार मेरे पिता अपने व्यापार के सिलसिले में पंजाब गए। ट्रेन में उन्हें एक पंजाबी व्यापारी मिला। दोनों के बीच कारोबारी फायदे को लेकर बातचीत शुरू हुई। जब मेरे पिता ने बिजली की कीमत बताई, तो उस व्यापारी ने चौंककर पूछा, 'क्या आपको बिजली की कीमत चुकानी पड़ती है, तो फिर आप मुनाफा कैसे कमाते हैं?' मेरे पिता यह सुनकर ठीक उसी तरह उलझन में पड़ गए, जिस तरह पटना के उस लड़के की बातें सुनकर मैं।

ये आज से 25 वर्ष पहले 1989 की घटनाएं हैं। तब से आज तक, पहली बार गुजरात आया कोई भी व्यक्ति यहां का वर्णन कुछ उसी चकित अंदाज में करता है। वास्तव में, बिजली, सड़क और बढ़ते उद्योगों के अलावा भी गुजरात में काफी कुछ था (और है भी), जिसे सराहा जा सकता है। गुजरात हमेशा से एक अग्रणी राज्य रहा है।

स्कूली जीवन के दौरान छोटी कक्षा में हमें रोज एक गिलास ठंडा दूध मिलता था, जिसे पीना हम सिर्फ इसलिए पसंद करते थे, क्योंकि उसे रंगीन गिलासों में परोसा जाता था। आज कुछ राज्यों में लड़कियों के लिए चलाई जा रही 'मुफ्त साइकिल' योजना का राग मीडिया खूब अलापता है, लेकिन गुजरात में बालिका शिक्षा लंबे समय से मुफ्त रही है। 1992-95 के दौरान मैंने स्नातक किया। और मेरी फीस थी, महज 36 रुपये सालाना।

गांवों की तस्वीर भी ज्यादा बुरी नहीं थी। गिर के जंगलों और पीरोटन द्वीप में 'नेचर  एजुकेशन कैंप' और नर्मदा के किनारे होने वाली सालाना स्कूल पिकनिक के दौरान ही हमें ग्रामीण गुजरात को देखने का मौका मिलता। बड़े होने पर पता चला कि वे पिकनिक स्पॉट (गरुड़ेश्वर, झाड़ेश्वर, उत्कंठेश्वर आदि) गुजरात के आदिवासी क्षेत्रों का हिस्सा हैं, जो राज्य का अपेक्षाकृत 'पिछड़ा इलाका' है। हालांकि, तब जिन ग्रामीण सड़कों से हम गुजरते थे, उनकी दशा मध्य प्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़ के उन राज्य या राष्‍ट्रीय राजमार्गों से बेहतर थीं, जिन्हें देखने का मौका मुझे 2005-07 में मिला। विगत 14 वर्षों में अपने काम के सिलसिले में देश के तकरीबन सभी प्रमुख राज्यों में फील्डवर्क के बाद मैं अच्छी तरह समझ सकती हूं कि पहली बार गुजरात देखने वालों की आंखों में भरी चकाचौंध की वजह क्या है।

जिस गुजराती माहौल में मैं पली-बढ़ी, उसकी खास बात है, वहां का सुरक्षित माहौल, जो आजादी का एहसास देता है। 1995-97 के दौरान जब मैं दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से एमए कर रही थी, मुझे याद है कि राजधानी एक्सप्रेस से मैं अलसुबह तीन बजे बड़ोदा पहुंचती थी। फिर मैं ऑटो रिक्‍शा करके अकेली घर पहुंचती थी। दिल्ली में आज भी मेरे जैसी सामाजिक पृष्‍ठभूमि की महिला के लिए यह एक सपना है। अपनी क्षेत्रीय और धार्मिक-सांस्कृतिक विविधता पर बड़ोदा को गर्व रहा है। स्कूल में मेरे साथ ईसाई, हिंदू, पारसी, मुस्लिम, सिख और सिंधी- लगभग सभी धर्मों के बच्चे पढ़ते थे। ओनम, पतेती और पोंगल के वह आमंत्रण मुझे आज भी याद आते हैं। 2007 में जब संजय दत्त पर आतंकवादियों से जुड़ाव के आरोप लगे, तो मेरी सात वर्ष की भांजी ने बेहद भोलेपन से मुझसे पूछा, 'संजय दत्त आतंकवादी कैसे हो सकता है? वह मुसलमान थोड़े है।' समझने वाली बात है कि सांप्रदायिक भावनाएं गुजरात के लिए नई नहीं हैं, लेकिन प्रत्यक्ष तौर पर मेरा इनसे सामना उम्र बढ़ने के साथ ही हुआ।

आंकड़े भी 90 और 2000 के दशक में गुजरात की उपलब्धियों की कहानी बयां करते हैं। 90 के दशक में सामाजिक-आर्थिक सूचकांकों में गुजरात का औसत न सिर्फ राष्‍ट्रीय औसत से ज्यादा था, बल्कि यह पहले दस राज्यों में शामिल था। 2000 के दशक में गुजरात अपनी उपलब्धियों को मुश्किल से ही बरकरार रख सका। अतः गुजरात एक दिन में नहीं बना। इसके पीछे जो कड़ी मेहनत है, उसकी शुरुआत तो मोदी युग से कम से कम दस वर्ष पहले ही हो चुकी थी।
मैं यह नहीं कहती कि गुजरात की शुरुआती उपलब्धियों का श्रेय  80 और 90 के दशक में रही कांग्रेस सरकार को जाना चाहिए। गौरतलब है कि गुजरात की उपलब्धियां हैं, तो कुछ बदनामियां भी हैं। 90 के दशक में 'सी एम' शब्द को लेकर एक चुटकुला प्रचलित था, जिसमें इसका उच्चारण 'चीफ मिनिस्टर' के बजाय 'करोड़-मेकिंग' कहा गया। इसके पीछे धारणा यह थी कि मुख्यमंत्री हर रोज एक करोड़ रुपये बटोरते थे। आज भी यहां संपत्ति के ज्यादातर कारोबार में काला धन शामिल होता है।

भाजपा की जनसंपर्क कंपनियों के चश्मे से देखें, तो गुजरात "ईश्वर का देश" है। उत्तर भारत के मैदानों के निवासी की आंखों से देखें, तो गुजरात की कई उपलब्धियां हैं, लेकिन वे मोदी-युग से पहले की हैं। दक्षिण भारत के नजरिये से देखें, तो गुजरात आर्थिक रूप से संपन्न, लेकिन सामाजिक पैमानों पर थोडा पिछड़ा दिखने लगता है।

लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता और आईआईटी, दिल्ली से संबद्ध हैं