Kaise Pahuche Garibon Tak Anaaj, Amar Ujala, February 2015.
अगस्ता वेस्टलैंड, टू जी- थ्री जी और कोयला घोटाले से उपजे सवालों का अगर कोई यह समाधान बताए कि सरकार को रक्षा उपकरणों की खरीद बंद कर देनी चाहिए, या स्पेक्ट्रम की नीलामी पर रोक लगा देनी चाहिए, तो अर्थशास्त्रियों की नजर में हम हंसी के पात्र बनेंगे, जो गलत भी नहीं है। मगर जब ऐसे ही सुझाव कोई सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) या राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) के बारे में देता है, तो उसे बड़ी गंभीरता के साथ लिया जाता है। दरअसल, भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए इसका सही रास्ता खोजना बेहद जरूरी है। अच्छी बात है कि पीडीएस के मामले में कई राज्यों में ठीक यही हो रहा है। गौरतलब है कि राज्य सरकार केंद्रीय पुल से जो अनाज लेती है, और नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएस) के अनुसार परिवार जो खरीदते हैं, उन दोनों में फर्क को 'लीकेज' माना जाता है। एनएसएस के आंकड़े बताते हैं कि 2004-05 से 2011-12 के बीच राष्ट्रीय स्तर पर लीकेज 52 से गिरकर 42 फीसदी पर पहुंच गया। वहीं, भारतीय मानव विकास सर्वेक्षण के अनुसार यह आंकड़ा 49 से गिरकर 32 फीसदी पर पहुंच गया है। हैरत की बात है कि इस सुधार के बावजूद बड़े-बड़े विश्लेषक अब भी पुराना राग अलाप रहे हैं।
यह सर्वविदित तथ्य है कि तमिलनाडु की सार्वभौमिक पीडीएस का प्रदर्शन काफी अच्छा रहा है। इसके आधार पर जब हमने पीडीएस की संभावनाओं पर स्वामीनाथन अंकलेश्वर अय्यर से बात की, तो उन्होंने सवाल उठाया कि क्या हम पूरी भारतीय क्रिकेट टीम से सचिन जैसा खेलने की उम्मीद कर सकते हैं? पिछले पांच वर्ष का अनुभव बताता है कि पिछड़े राज्यों को मौका देना चाहिए। जिन राज्यों ने गंभीर सुधारों की तरफ कदम बढ़ाए, वहां नतीजे भी उत्साह बढ़ाने वाले थे।
छत्तीसगढ़ उन शुरुआती राज्यों में शामिल था, जहां पीडीएस में सुधार किए गए। इसकी बदौलत छत्तीसगढ़ में जहां 2004-05 में 50 फीसदी से ज्यादा लीकेज था, 2011-12 में यह दस फीसदी के करीब रह गया। दरअसल, इस राज्य में दो तरह के सुधार किए गए। कवरेज को बढ़ाकर, मूल्यों में कमी और पात्रता को निश्चित करने जैसे उपायों के जरिये नीचे से दबाव बढ़ाया गया। वहीं दूसरी ओर, आपूर्ति से जुड़ी दिक्कतों को दूर करने की कोशिश भी की गई। इतना ही नहीं, छत्तीसगढ़ में निजी डीलरों को राशन दुकानों के संचालन से हटाना शुरू किया गया। असल में, जब निजी डीलर राशन की दुकानें चलाने लगते हैं, तो उसकी आड़ में भ्रष्टाचार का तंत्र फलने-फूलने लगता है। 2004 में यहां की सरकार ने ग्राम पंचायतों, स्वयं सहायता समूहों और दूसरे सामुदायिक संस्थानों को राशन की दुकानों का जिम्मा सौंपने की महत्वपूर्ण प्रक्रिया शुरू की। इससे न सिर्फ राशन की दुकानें लोगों के घरों के नजदीक पहुंचीं, बल्कि इससे पीडीएस प्रणाली को थोड़ा जवाबदेह बनाने में भी मदद मिली।
दूसरा महत्वपूर्ण सुधार पीडीएस के जरिये अनाज की गांवों तक पहुंच सुनिश्चित करवाना था। इसका मतलब यह है कि डीलरों द्वारा नजदीकी गोदाम से अपना कोटा उठाने की व्यवस्था के बजाय अब हर महीने सरकारी एजेंसियों से अनाज राशन की दुकानों पर पहुंचने लगा है। दरअसल, आपूर्ति में सेंध राशन के गांवों में पहुंचने से पहले ही लग जाती थी, और डीलर ग्राहकों से यह कहते हुए अपने हाथ खड़े कर लेते थे, कि पीछे से ही कम अनाज आया है। पर जब अनाज सीधे गांव की राशन की दुकान पर पहुंचता है, डीलर के लिए बेईमानी करने की गुंजाइश कम रहती है। इसके अलावा तकनीकी का उपयोग कर सख्त निगरानी का इंतजाम किया गया। जैसे, एसएमएस के जरिये अनाज की जानकारी नागरिकों के पास पहुंचाई गई। इससे जुड़ी जानकारियों का कंप्यूटरीकरण किया गया है। मगर सबसे मुख्य सुधार था, सक्रिय हेल्पलाइन के जरिये शिकायत निवारण व्यवस्था को पुख्ता करना। बहुत-से मामलों में भ्रष्ट बिचौलिओं के खिलाफ एफआईआर दर्ज हुई, और उन्हें सलाखों के पीछे तक पहुंचाया गया।
2010 के करीब ओडिशा ने भी अपने पड़ोसी से सीख लेते हुए पीडीएस के तहत चावल का दाम कम करते हुए दो रुपये प्रति किलोग्राम कर दिया। इसने राज्य के भूख से पीड़ित केबीके (कालाहांडी-बोलांगीर-कोरापुट) क्षेत्र में सार्वभौमिक पीडीएस की व्यवस्था लागू की। इसकी बदौलत 2004-05 से 2011-12 के दौरान राज्य में लीकेज 70 से गिरकर 25 फीसदी पर पहुंच गया।
मगर सुधारों की सबसे हैरतअंगेज कहानी बिहार की रही। एनएसएस के आंकड़ों के मुताबिक, बिहार में 2004-05 में दस फीसदी से भी कम अनाज पीडीएस के जरिये लोगों तक पहुंच पाता था। 2010 के करीब बिहार ने छत्तीसगढ़ में हुए कुछ सुधारों को अपनाया। पूरे मन से न सही, मगर बिहार में कूपन व्यवस्था शुरू हुई, पीडीएस का विस्तार हुआ और घर-घर तक पीडीएस को पहुंचाने की कोशिश की गई। नतीजतन, पीडीएस में लीकेज 25 फीसदी से भी कम रह गया और भारतीय मानव विकास सर्वे ने भी बिहार में भ्रष्टाचार में महत्वपूर्ण कमी की पुष्टि की।
केंद्र सरकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के क्रियान्वयन में विलंब कर रही है। शांता कुमार कमेटी ने इस कानून का कवरेज 66 से कम करते हुए 40 फीसदी करने का सुझाव दिया था। इस सिफारिश का आधार पीडीएस में लीकेज का गलत आकलन था। गौरतलब है कि बिहार, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश जैसे जिन राज्यों में यह कानून पहले से लागू है, वहां के ज्यादातर परिवार पहली बार इस कानून के दायरे में लाए गए हैं। 2013 में जब यह विधेयक संसद में पेश किया गया था, तब इन राज्यों में सत्तारूढ़ पार्टी ही, इसे अपर्याप्त बताते हुए इसका रास्ता रोक रही थी। आज परिस्थिति यह है कि वही पार्टी इस 'अपर्याप्त' कानून को लागू करने में आनाकानी कर रही है।
(सामाजिक कार्यकर्ता और आईआईटी, दिल्ली से संबद्ध)
जरूरतमंदों तक कैसे पहुंचे अनाज
रीतिका खेड़ा
Updated 19:50 मंगलवार, 24 फरवरी 2015यह सर्वविदित तथ्य है कि तमिलनाडु की सार्वभौमिक पीडीएस का प्रदर्शन काफी अच्छा रहा है। इसके आधार पर जब हमने पीडीएस की संभावनाओं पर स्वामीनाथन अंकलेश्वर अय्यर से बात की, तो उन्होंने सवाल उठाया कि क्या हम पूरी भारतीय क्रिकेट टीम से सचिन जैसा खेलने की उम्मीद कर सकते हैं? पिछले पांच वर्ष का अनुभव बताता है कि पिछड़े राज्यों को मौका देना चाहिए। जिन राज्यों ने गंभीर सुधारों की तरफ कदम बढ़ाए, वहां नतीजे भी उत्साह बढ़ाने वाले थे।
छत्तीसगढ़ उन शुरुआती राज्यों में शामिल था, जहां पीडीएस में सुधार किए गए। इसकी बदौलत छत्तीसगढ़ में जहां 2004-05 में 50 फीसदी से ज्यादा लीकेज था, 2011-12 में यह दस फीसदी के करीब रह गया। दरअसल, इस राज्य में दो तरह के सुधार किए गए। कवरेज को बढ़ाकर, मूल्यों में कमी और पात्रता को निश्चित करने जैसे उपायों के जरिये नीचे से दबाव बढ़ाया गया। वहीं दूसरी ओर, आपूर्ति से जुड़ी दिक्कतों को दूर करने की कोशिश भी की गई। इतना ही नहीं, छत्तीसगढ़ में निजी डीलरों को राशन दुकानों के संचालन से हटाना शुरू किया गया। असल में, जब निजी डीलर राशन की दुकानें चलाने लगते हैं, तो उसकी आड़ में भ्रष्टाचार का तंत्र फलने-फूलने लगता है। 2004 में यहां की सरकार ने ग्राम पंचायतों, स्वयं सहायता समूहों और दूसरे सामुदायिक संस्थानों को राशन की दुकानों का जिम्मा सौंपने की महत्वपूर्ण प्रक्रिया शुरू की। इससे न सिर्फ राशन की दुकानें लोगों के घरों के नजदीक पहुंचीं, बल्कि इससे पीडीएस प्रणाली को थोड़ा जवाबदेह बनाने में भी मदद मिली।
दूसरा महत्वपूर्ण सुधार पीडीएस के जरिये अनाज की गांवों तक पहुंच सुनिश्चित करवाना था। इसका मतलब यह है कि डीलरों द्वारा नजदीकी गोदाम से अपना कोटा उठाने की व्यवस्था के बजाय अब हर महीने सरकारी एजेंसियों से अनाज राशन की दुकानों पर पहुंचने लगा है। दरअसल, आपूर्ति में सेंध राशन के गांवों में पहुंचने से पहले ही लग जाती थी, और डीलर ग्राहकों से यह कहते हुए अपने हाथ खड़े कर लेते थे, कि पीछे से ही कम अनाज आया है। पर जब अनाज सीधे गांव की राशन की दुकान पर पहुंचता है, डीलर के लिए बेईमानी करने की गुंजाइश कम रहती है। इसके अलावा तकनीकी का उपयोग कर सख्त निगरानी का इंतजाम किया गया। जैसे, एसएमएस के जरिये अनाज की जानकारी नागरिकों के पास पहुंचाई गई। इससे जुड़ी जानकारियों का कंप्यूटरीकरण किया गया है। मगर सबसे मुख्य सुधार था, सक्रिय हेल्पलाइन के जरिये शिकायत निवारण व्यवस्था को पुख्ता करना। बहुत-से मामलों में भ्रष्ट बिचौलिओं के खिलाफ एफआईआर दर्ज हुई, और उन्हें सलाखों के पीछे तक पहुंचाया गया।
2010 के करीब ओडिशा ने भी अपने पड़ोसी से सीख लेते हुए पीडीएस के तहत चावल का दाम कम करते हुए दो रुपये प्रति किलोग्राम कर दिया। इसने राज्य के भूख से पीड़ित केबीके (कालाहांडी-बोलांगीर-कोरापुट) क्षेत्र में सार्वभौमिक पीडीएस की व्यवस्था लागू की। इसकी बदौलत 2004-05 से 2011-12 के दौरान राज्य में लीकेज 70 से गिरकर 25 फीसदी पर पहुंच गया।
मगर सुधारों की सबसे हैरतअंगेज कहानी बिहार की रही। एनएसएस के आंकड़ों के मुताबिक, बिहार में 2004-05 में दस फीसदी से भी कम अनाज पीडीएस के जरिये लोगों तक पहुंच पाता था। 2010 के करीब बिहार ने छत्तीसगढ़ में हुए कुछ सुधारों को अपनाया। पूरे मन से न सही, मगर बिहार में कूपन व्यवस्था शुरू हुई, पीडीएस का विस्तार हुआ और घर-घर तक पीडीएस को पहुंचाने की कोशिश की गई। नतीजतन, पीडीएस में लीकेज 25 फीसदी से भी कम रह गया और भारतीय मानव विकास सर्वे ने भी बिहार में भ्रष्टाचार में महत्वपूर्ण कमी की पुष्टि की।
केंद्र सरकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के क्रियान्वयन में विलंब कर रही है। शांता कुमार कमेटी ने इस कानून का कवरेज 66 से कम करते हुए 40 फीसदी करने का सुझाव दिया था। इस सिफारिश का आधार पीडीएस में लीकेज का गलत आकलन था। गौरतलब है कि बिहार, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश जैसे जिन राज्यों में यह कानून पहले से लागू है, वहां के ज्यादातर परिवार पहली बार इस कानून के दायरे में लाए गए हैं। 2013 में जब यह विधेयक संसद में पेश किया गया था, तब इन राज्यों में सत्तारूढ़ पार्टी ही, इसे अपर्याप्त बताते हुए इसका रास्ता रोक रही थी। आज परिस्थिति यह है कि वही पार्टी इस 'अपर्याप्त' कानून को लागू करने में आनाकानी कर रही है।
(सामाजिक कार्यकर्ता और आईआईटी, दिल्ली से संबद्ध)